Sunday, September 25, 2016

Arab Spring - अरब स्प्रिंग, ये कैसा 'स्प्रिंग'

मौत का सन्नाटा  
अगर हमारे गली मोहल्ले, अड़ोस-पड़ोस में किसी घर में किसी की मौत हो जाती है तो कई दिन तक पूरे मोहल्ले में सन्नाटा छाया रहता है। अब इसी तरह सीरिया, इराक तथा मध्य पूर्व के अन्य देशों के बारे में सोचें जहाँ रोज हजारों की संख्या में मौतें हो रही हैं। लोगों की आँखों में आंसू सूख चुके हैं लेकिन मौत का तांडव पिछले लगभग पांच साल से जारी है।

'अरब स्प्रिंग' - मौतें, मौतें और सिर्फ मौतें
'अरब स्प्रिंग' या 'अरब वसंत' के नाम से इन देशों में एक के बाद एक जो आंदोलन शुरू और विरोध प्रदर्शन शुरू हुए थे वो कहीं-कहीं तो वसंत का एहसास दे गए लेकिन बाकी जगह अगर कुछ मिला है तो सिर्फ और सिर्फ हिंसा, भुखमरी, बेरोजगारी, मौत और पलायन। 2010 में ट्यूनीशिया से शुरू हुआ अरब स्प्रिंग, अरब जाग्रति या अरब विद्रोह धीरे-धीरे अल्जीरिया, मिस्र, जॉर्डन और यमन पहुँची जो शीघ्र ही पूरे अरब लीग एवं इसके आसपास के क्षेत्रों में फैल गई।  इन विरोध प्रदर्शनो के परिणाम स्वरूप कई देशों के शासकों को सत्ता की गद्दी से हटने पर मजबूर होना पड़ा। बहरीन, सीरिया, अल्जीरिया, ईरक, सुडान, कुवैत, मोरक्को, इजरायल में भारी जनविरोध हुए, तो वही मौरितानिया, ओमान, सऊदी अरब, पश्चिमी सहारा तथा पलीस्तिन भी इससे अछूते न रहे।

अरब स्प्रिंग की इसी श्रृंखला में ही सीरिया में शुरू हुआ विरोध प्रदर्शन इतना वीभत्स रूप ले लेगा ये किसी ने सोचा भी नहीं होगा। मार्च 2011 में सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल असद के ख़िलाफ़ शुरू हुआ प्रदर्शन कुछ ही दिनों में हिंसक हो गया था और फिर ऐतिहासिक गवाही के अनुसार, जैसाकि हर हिंसा में होता आया है, हर बार की तरह ये हिंसा भी अब तक लाखों लोगों को मौत के मुंह में धकेल चुकी है।  इनमें बच्चे, बूढ़े, महिलायें सभी शामिल हैं।  इस प्रदर्शन से "स्प्रिंग" जैसा तो कोई सुखद अनुभव नहीं मिला गर हाथ में कुछ है तो सिर्फ लाखों बेबस ज़िन्दगियाँ। 

एक अनुमान के मुताबिक 4 लाख 30 हजार लोग अब तक हिंसा की भेंट चढ़ चुके हैं। हालाँकि 'सीरियन ऑब्जरवेटरी फॉर ह्यूमन राइट्स' के आंकड़ों के मुताबिक अब तक 3 लाख 1 हजार 781 मौतें हुई हैं। सेना और विद्रोहियों के संघर्ष में 86 हजार आम नागरिक मारे गए हैं। इनमें 15,099 बच्चे और 10,018 महिलाएं भी हैं। 52,359 विद्रोही और 59,006 सैनिक मारे गए हैं। 52 हजार से ज़्यादा लोगों की हत्या आईएस और अल-नुसरा जैसे आतंकी संगठनों ने की है। 3 हज़ार से ज़्यादा मृतकों की पहचान नहीं हो पाई है।  ये आंकड़े तस्दीक करते हैं कि 'स्प्रिंग' के नाम पर सीरियाई लोगों ने कितनी बड़ी कीमत चुकाई है। 

परिणाम - 'स्प्रिंग' के बजाय मरी संवेदनाएं 
स्प्रिंग के नाम से शुरू हुए इन विरोध प्रदर्शनों के पीछे सरकार के प्रति जनता का असंतोष था और उददेश्य था एक ऐसे शासन की स्थापना का जो लोगों को सुख, चैन और सुकून की ज़िंदगी दे सके। लेकिन परिणाम लोगों की आशाओं के ठीक विपरीत हुआ।  कुछ देशों के कुछ शहरों को छोड़कर, बाकी देशों में, या कहा जाये कि उस पूरे क्षेत्र में एक लंबे समय तक की स्थायी अशांति सी कायम हो गई है। 
लोगों के कानों में अब बस गोली और बम की आवाजें ही सुनाई देती हैं। उनके नथुने अब बारूद की गंध ही सूंघते हैं। उनकी गलियों में विद्रोही और सैनिकों के टैंक ही गुजरते हैं। उनकी टूटी और अस्थायी छतों के ऊपर आसमान में लड़ाकू विमान ही मंडराते दिखते हैं।उन्हें सबसे ज्यादा दिखने वाला रंग मानव के खून का रंग है।

इस हिंसा का अगर सबसे ज़्यादा असर किसी पर होगा तो वो वहां के बच्चे होंगे। जिन आँखों में ईश्वर की दी हुई नैसर्गिक सुंदरता और कल के लिए सपने होने चाहिए थे आज उनमें अजीब सा डर है। उनके मासूम चेहरे बड़ा वीभत्स रूप ले चुके हैं। उनके हाथों में सालों से खिलौने और किताबें नहीं हैं बल्कि ये हाथ भोजन की तलाश के लिए खाली हैं। वे स्कूल जाने की बजाय अपने माता-पिता या रिश्तेदारों के साथ किसी सुरक्षित जगह के अनजाने सफ़र पर हैं जो कभी ख़त्म होगा भी या नहीं ये कोई नहीं जानता।  कितने ही ऐसे बच्चे अपने माता-पिता समेत या उनसे बिछड़कर अकेले ही इस सफ़र के दौरान काल के गाल में समां चुके हैं। 

एकमात्र रास्ता - अहिंसा और लोकतंत्र 
ये हिंसा वहां के वर्तमान के साथ-साथ पूरे भविष्य को संवेदनहीन कर देगी। जरा सोचिए कि इस माहौल में पले -बढ़े और जन्मे बच्चों का भविष्य कैसा होगा ? दुनिया और इंसानियत को लेकर उनकी क्या दृष्टि होगी। आखिर इस तरह हम विश्व को कहाँ ले जाना चाहते हैं। आज मध्य पूर्वी एशिया के इन देशों में अहिंसा, शांति, लोकतंत्र, न्याय जैसे शब्द बेशक बहुत बौने प्रतीत होते हों लेकिन विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र, अहिंसा और सहिष्णुता की जननी, भारत की इस पावन भूमि पर खड़ा होकर मैं गौरव अनुभव करते हुए सर उठाकर यह कह सकता हूँ कि दुनिया में अगर शांति आएगी तो इन्हीं मूल्यों से।
आज मुझे बुद्ध, महावीर और बापू बहुत याद आ रहे हैं। अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका समेत सम्पूर्ण विश्व का इतिहास इस बात का गवाह है कि हिंसक या खूनी विरोध प्रदर्शनों एवं क्रांतियों से सत्ता तो बदल सकती है लेकिन सुख, चैन और शांति नहीं मिलने वाली। चाहे अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग जूनियर रहे हों या अफ्रीका में नेल्सन मंडेला या फिर भारत में अहिंसा की साकार मूर्ति बन चके महात्मा गाँधी...... सभी ने अहिंसा, लोकतंत्र, न्याय आदि मूल्यों और रास्तों को अपनाकर ही अपने देश-समाज को आगे बढ़ाया है। अब बारी है अरब जगत की, वहां के लोगों को ही तय करना होगा कि क्या अभी भी उन्हें मध्ययुग में ही जीते रहना है या फिर आधुनिक विश्व के साथ कदमताल करनी है।  अगर वे आगे बढ़ने की सोचते हैं तो फिर उनकी सोच और उनके तरीके भी मध्ययुगीन नहीं हो सकते।   

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