Monday, May 23, 2016

जम्मू कश्मीर और अफस्पा को समझना जरुरी

(यह लेख मैंने आज से चार वर्ष, सात महीने पहले लिखा था और 30 अक्टूबर 2011 को यह प्रवक्ता.कॉम पर और "अखिल भारतीय पंचायत परिषद" की पत्रिका पंचायत सन्देश में प्रकाशित हुआ था. शायद दिल्ली की भीषण गर्मी के कारण आज जम्मू कश्मीर की बहुत याद आ रही है. हालाँकि ये बहुत छोटा कारण कहा जायेगा। मुझे फिर से कश्मीर की इतनी याद दिलाई इस साल यूपीएससी के दूसरे स्थान पर टॉप करने वाले अतहर आमिर-उल-सफी खान ने और लालू की चरण वंदना करने वाले कन्हैया कुमार ने. इसीलिए बिना किसी कांट छांट के, बिना किसी बदलाव के वही लेख अपने ब्लॉग पर दे रहा हूँ) 

जम्मू कश्मीर के मुद्दे पर एक बार फिर हलचल शुरू हो गई है. वार्ताकारों ने अपनी रिपोर्ट गृहमंत्री को सौंप दी है और उस रिपोर्ट पर, जो अब तक सार्वजनिक नहीं हुई है, लेखन और चर्चा बड़े स्तर पर प्रारंभ हो गई है. तीन सदस्यीय वार्ताकारों के इस दल ने काफ़ी मेहनत की है. राज्य के 700 प्रतिनिधिमंडलों से मुलाकात की, उनकी बातें सुनीं और उनसे ज्ञापन लिए. ऐसे में जब तक रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हो जाती बिना सर पैर के किसी पूर्वाग्रह के साथ कोई अनुमान लगाना ठीक नहीं होगा. हालाँकि वार्ताकारों के दामन  पर भी कुछ दाग दिखाई दिए लेकिन फिर भी हमें रिपोर्ट के सार्वजनिक  करना चाहिए।

दूसरी ओर जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने जल्द ही राज्य से अफस्पा कानून हटाने की घोषणा करके एक नयी बहस को जन्म दे दिया है. इस बारे में उनका अमला सक्रिय भी हो गया हैं और कैबिनेट सचिव अजित सेठ के साथ बातचीत भी शुरू हो गई है. इसी बीच इत्तेफाक हुआ कि अफस्पा हटाने की गर्मागर्म  ही घाटी में चार ग्रेनेड भी फेंके जा चुके हैं.  सेना भी अफस्पा न हटाने का सुझाव दे चुकी है.  मुख्यमंत्री भी बैकफुट पर हैं और कहा है की राज्य में सेना की भूमिका महत्वपूर्ण है. अफस्पा हटाना सही नहीं, अफस्पा हटेगा नहीं  गर्त में है लेकिन हमें अफस्पा यानि सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को समझने की जरुरत है
क्योंकि जम्मू कश्मीर में अक्सर राजनीतिज्ञ इस कानून के सहारे अपनी राजनीति चमकाते रहते हैं और जम्मू कश्मीर तथा देश की जनता धोखे में रहकर विषय को समझ नहीं पाती। 

अफस्पा कानून की बात करें तो ये कानून कहीं भी तब लगाया जाता है जब वो क्षेत्र अशांत घोषित कर दिया जाता है. अब कोई क्षेत्र अशांत है या नहीं ये भी उस राज्य का प्रशासन तय करता है. इसके लिए भारतीय संविधान में प्रावधान किया गया है और अशांत क्षेत्र कानून यानि डिस्टर्बड एरिया एक्ट (डीएए) मौजूद है जिसके अंतर्गत किसी क्षेत्र को अशांत घोषित किया जाता है. जिस क्षेत्र को अशांत घोषित कर दिया जाता है वहाँ पर ही अफस्पा कानून लगाया जाता है और इस कानून के लागू होने के बाद ही वहाँ सेना या सशस्त्र बल भेजे जाते हैं.

जम्मू कश्मीर के मामले में भी उमर अब्दुल्ला और उनसे पहले के मुख्यमंत्रियों (जिसमें उमर अब्दुल्ला के पिता फ़ारुक अब्दुल्ला भी हैं) ने ही वहाँ अफस्पा कानून लागू कर रखा है. जम्मू कश्मीर के नेताओं ने ही उस क्षेत्र को अशांत घोषित किया था जिसका मतलब था कि स्थिति उनके नियंत्रण से बाहर चली गयी थी, उसके बाद ही वहाँ सेना भेजी गयी थी. ये कानून लागू करने का फैसला या राज्य में सेना भेजने का फैसला दिल्ली ने नहीं किया था. फ़ौज भी अपनी मर्जी से या तानाशाही रवैया अपनाकर वहाँ जबरदस्ती नहीं रह रही है. अगर उमर अब्दुल्ला आज ये घोषणा कर देते हैं कि अब जम्मू कश्मीर अशांत नहीं रहा और स्थिति उनके नियंत्रण में है तो अफस्पा कानून स्वतः ही वहाँ से हट जायेगा और सेनाएं सम्मान सहित वहाँ से लौट आएँगी। लेकिन राज्य के नेता बार-बार अफस्पा हटवाने की बात तो करते हैं जबकि सच्चाई उन्हें भी पता है कि वहाँ इसकी कितनी जरुरत है. इसका साफ़ मतलब ये है कि इस कानून के नाम पार वहाँ के लोग सिर्फ अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते हैं.

भगवान मार्तंड (सूर्य) मंदिर 
वास्तव में हम दिल्ली में बैठकर या दिल्ली की दृष्टि से देखते हुए जम्मू कश्मीर की समस्या को कतई नहीं समझ सकते। जम्मू कश्मीर को समझने के लिए हमें वहाँ के सामाजिक-राजनीतिक हालात, राज्य का वर्तमान और भूत समझने की जरुरत है. जम्मू कश्मीर में आजादी से पहले कैसी परिस्थितियां थीं, आजादी के बाद वहाँ क्या हालात बने और 90 के दशक के बाद जब वहाँ सीमा पार से आतंकवाद के बीज बोये गए, उसके बाद वहाँ क्या हालात बने इस सबको जानने और समझने की जरुरत है.

इसमें कोई दो राय नहीं कि जम्मू कश्मीर में हालात नाजुक हैं लेकिन देश में ये भ्रम फैला दिया गया है कि पूरा जम्मू कश्मीर जल रहा है, जबकि ये वास्तविकता से कोसों दूर है. जम्मू कश्मीर में सिर्फ कश्मीर के कुछ जिलों में ही हालात खराब हैं और उन जिलों के भी कुछ इलाकों में ही ऐसा है. इससे भी ज्यादा सच्चाई ये है कि कश्मीर के इन चिन्हित इलाकों में कुछ परिवार ऐसे हैं जो दशकों से चिल्लाकर-चिल्लाकर कश्मीर के लोगों को बरगलाते रहते हैं और अपने निजी फायदे के लिए देश भर में ये माहौल बनाकर रखते हैं कि कश्मीर में हालात बेकाबू हैं और चारों तरफ आग लगी हुई है और ये लोग बार-बार पूरे जोर से यही बात चिल्लाते हैं. इसका नतीजा ये हुआ कि अब जम्मू कश्मीर के लोगों और देश की जनता को ये लगने लगा है कि हाँ जम्मू कश्मीर में सब कुछ अस्त व्यस्त है, वहाँ बस आतंकवाद है, वहाँ के लोग देश से अलग होना चाहते हैं, वो आजादी चाहते हैं जबकि हकीकत इससे बिलकुल परे है. 

कश्मीर का बड़ा तबका ऐसा है जो भारत के साथ ही खुद को देखता है और भारत के संविधान में उसकी पूरी निष्ठा है. आम चुनाव में अपना वोट डालकर ये लोग भारतीय संविधान और संसद के प्रति अपनी निष्ठा को व्यक्त भी करते हैं. इस बार स्थानीय निकाय के चुनावों ने राज्य में लोकतंत्र स्थापित कर दिया है और और ये सिद्ध हुआ है कि सूबे के लोग आए दिन होने वाली हड़तालों से परेशां हैं और विकास चाहते हैं.  

हालाँकि अगर इसमें कहीं कोई कमी रह गयी है तो इसके लिए भी वहाँ के तथाकथित कश्मीरियत के झंडाबरदार ही जिम्मेदार हैं. वहाँ के राजनीतिक परिवारों ने स्थिति को लगातार खराब ही किया है जो कश्मीर को अपने बाप की जागीर मानते हैं और उस पर अपनी राय को ही सबकी राय मानते हैं.  इन लोगों ने जितना कश्मीर और कश्मीरियत का नुक्सान किया है उतना नुक्सान शायद हथियारबंद आतंकवादियों ने भी नहीं किया होगा। 


इसलिए कश्मीर विषय पर हमें कश्मीर और कश्मीरी लोगों की भावनाओं को समझकर उसी अनुसार जनमत निर्माण करना होगा। कश्मीर-कश्मीर चिल्लाकर ये सिद्ध करने की कोशिश की जा  रही है कि ये समस्या इतनी जटिल है कि इसके सुलझने का कोई मार्ग नहीं है और यदि हल है तो सिर्फ़ अलगाववादियों के पास और ये हल है स्वायत्ता  लोगों के शब्दों में आज़ादी। अलगाववादी ये सिद्ध करना चाहते हैं कि कश्मीर भारत के लिए समस्या है जिसके समाधान के लिए नई दिल्ली को इन अलगाववादियों से मोल भाव करना होगा। कश्मीर की समस्या राजनीतिक इच्छाशक्ति से हल की जा सकती है लेकिन इसके लिए हमारे नेताओं को हिम्मत दिखानी होगी। दुर्भाग्य से वर्तमान में किसी राजनीतिक दल में ऐसे नेता या तो हैं ही नहीं और अगर हैं तो पार्टी में उनका कद उतना बड़ा नहीं कि ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर कड़ा फैसला ले सकें। 

जम्मू और कश्मीर राज्य के बाहर, राज्य के केवल एक हिस्से की बात की जाती है. फलस्वरूप राज्य के दो अन्य महत्वपूर्ण भाग जम्मू और लद्दाख विकास में पीछे रह गए हैं. कश्मीर के कारण जम्मू और लद्दाख से बड़े स्तर पर भेदभाव होता है जबकि इन दो क्षेत्रों की भी अपनी विशेषताएं हैं और इनके बिना कश्मीर भी अधूरा है. जम्मू इस राज्य का सबसे बड़ा शहर है लेकिन फिर भी जम्मू में सरकार कम ही ध्यान देती है. लद्दाख जैसा पवित्र और शांत शहर भी विकास के लिए तरस रहा है. प्रकृति की अनमोल धरोहर के साथ ही बड़ी संख्या में बौद्ध मठ यहाँ हैं जहाँ दुनिया के कोलाहल से दूर असीम शांति का अनुभव किया जा सकता है. लेकिन केंद्र और राज्य सरकारें इसके उदासीन हैं.     


जम्मू कश्मीर राज्य में और कश्मीर में समस्या, आतंकवाद, हिंसा, हड़ताल के अलावा भी बहुत कुछ है. कश्मीर को, उसके वैभव को, उसकी सांस्कृतिक समृद्धि को, उसकी अद्भुत खूबसूरती को भी जानने की जरुरत है. कश्मीर संतो, ऋषियों और सूफियों की भूमि है. इसी भूमि पर शैवमत का विकास हुआ और सूफीवाद भी खूब फला फूला. कश्मीर में शंकराचार्य पहाड़ी भी है और भगवान मार्तंड (सूर्य) का विशाल सूर्य मंदिर भी जिसके अब खंडहर ही बचे हैं. कश्मीर में प्रसिद्द हजरत बल धार्मिक स्थल भी है तो केसर की क्यारियां भी. 

यहीं पर कल्हण रचित महान ग्रन्थ राजतरंगिणी के स्वर गूंजे जो कश्मीर के इतिहास समेटे हुए है. हम यहाँ की झीलों, शिकारे, हाउसबोट आदि की बात भी कर सकते हैं. कश्मीर अपनी खूबसूरत झीलों के लिए विश्वविख्यात है. यहाँ डल, वुलर, शिशरम और नागिन जैसी झीलें हैं. झेलम और चिनाब जैसी नदियां, जिनका वर्णन वेदों में भी है, इसी राज्य में बहती हैं. कश्मीर के प्रति हमें खुले दिमाग से सोचने, जानने और समझने की जरुरत है. इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, हमें इसके आगे की बात करनी चाहिए. कश्मीर भारत का किरीट था, है और रहेगा।

(कश्मीर हालात पर ही वहां के निकाय चुनावों पर भी लिखा गया एक पुराण लेख पढ़ा जा सकता है जम्मू कश्मीर में पंचायती राज )

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